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क्यों न अब अखबारों और चैनलों पर लिखा जाए “केवल वयस्कों के लिए”

jugaali
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क्यों न अब न्यूज़ चैनलों और अख़बारों की ख़बरों के साथ “केवल वयस्कों के लिए” जैसा कोई टैग लगाना चाहिए? हो सकता है यह सवाल सुनकर आपको आश्चर्य हो और आप प्रारंभिक तौर पर इससे सहमत भी न हो लेकिन यदि आप मेरी पूरी बात पर गंभीरता से विचार करेंगे तो शायद आपको भी इस सवाल में दम नज़र आ सकता है. देश में कई बातों को बच्चो के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता इसलिए ‘केवल वयस्कों के लिए’ नामक श्रेणी को बनाया गया. इसका उद्देश्य बच्चों या अवयस्कों को ऐसी सामग्री से दूर रखना है जो उम्र के लिहाज़ से उनके लिए उपयुक्त नहीं मानी जा सकती क्योंकि वयस्कों के लिए निर्धारित सामग्री देखने से उनके अपरिपक्व मन पर गहरा असर पड़ सकता है. यही कारण है कि हिंसात्मक दृश्यों से भरपूर फिल्मों, अश्लीलता परोसने वाले कार्यक्रमों, फूहड़ भाषा का इस्तेमाल करने वाली पत्रिकाओं और इन विषयों पर केंद्रित चित्रों का प्रकाशन-प्रसारण करने वाली सामग्री को बच्चों से दूर रखने के लिए उन पर साफ़ तौर पर इस बात का उल्लेख किया जाता है कि ‘यह सामग्री केवल वयस्कों के लिए है’. कानून व्यवस्था से जुडी एजेंसियां भी इस बात का खास ख्याल रखती हैं कि वयस्कों के लिए निर्धारित सामग्री गलती से भी बच्चों या अवयस्कों तक न पहुंचे.
सरकार की इस नीति का कड़ाई से पालन किया जाता है तभी तो कई लोकप्रिय फ़िल्में भी वयस्कों के ‘टैग’ के कारण बच्चों की पहुँच से बाहर रहती हैं. ताजा उदाहरण ‘डर्टी पिक्चर’ का है. कमाई के लिहाज से सफल यह फिल्म देश के सभी प्रतिष्ठित फिल्म पुरस्कारों में सफलता के झंडे गाड़ रही है लेकिन इस सबके बावजूद बच्चे इसे नहीं देख सकते लेकिन इसी फिल्म से सम्बंधित विद्या बालन के श्लील-अश्लील लटके झटके जब छोटे परदे पर न्यूज़ चैनलों, मनोरंजक चैनलों और समाचार पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा प्रकाशित-प्रसारित होते हैं तो कोई भी देख सकता है.यहाँ तक कि नन्हे-मुन्ने बच्चे भी पूरे परिवार के साथ बैठकर विद्या बालन के “ऊ लाला” का मजा लेते हैं. तब न तो ‘केवल वयस्कों के लिए’ का टैग होता है और न ही इस कानून का पालन करने वाली सरकारी-गैर सरकारी एजेंसियों को कोई दिक्कत होती है. बात केवल फ़िल्मी दृश्यों भर की नहीं है. दरअसल हमारा यह कानून वयस्कों के लिए खींची गई इस लक्ष्मणरेखा के जरिये बच्चों को हिंसा,बलात्कार,अनैतिक सम्बन्ध,विवाह पूर्व या विवाह पश्चात बनाये जाने वाले अनैतिक रिश्तों, खून-खराबा जैसी तमाम बातों से भी दूर रखता है लेकिन नामी अंग्रेजी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली देशी-विदेशी अभिनेत्रियों की अधनंगी तस्वीरें, लाखों में बिकने वाली समाचार पत्रिकाओं द्वारा किये जाने वाले सेक्स सर्वेक्षण,न्यूज़ चैनलों पर दिनभर चलने वाले हिंसात्मक दृश्यों वाले समाचार,सामूहिक बलात्कार की ख़बरों और अश्लीलता परोसने वाले विज्ञापनों पर कोई रोक नहीं है. घर में अकेले या परिवार के साथ बच्चे बेरोकटोक इन्हें देखते-पढते-सुनते हैं. अब वह समय भी नहीं रहा कि ऐसा कोई दृश्य आते ही माँ-बाप टीवी बंद कर दें,न्यूज़ चैनल बदल दें या फिर उस समाचार पत्र-पत्रिका को ही छिपा दे. वैसे भी अब तो ऐसी तस्वीरें छापना या सेक्स सर्वे प्रकाशित करना रोजमर्रा की सी बात हो गई है तो अभिभावक भी कब तक और कहाँ तक इस बातों से अपने बच्चों को बचा सकते हैं. अब क्या माँ-बाप बिस्तर से उठते ही अखबार के उन पन्नों को छिपाने के लिए भागे? या एक-एक पन्ना खुद देखकर और ‘सेन्सर’ कर बच्चों को पढ़ने दें?
ऐसी स्थिति में एक ही रास्ता बचता है कि सरकार को समाचार पत्र-पत्रिकाओं की सामग्री और न्यूज़ चैनलों की विषय वस्तु के लिए भी ‘केवल वयस्कों के लिए’ जैसी कोई श्रेणी बनानी चाहिए. मजे की बात यह है कि छोटे परदे पर आने वाले ‘बिग बॉस’ जैसे कार्यक्रमों में अश्लीलता को लेकर हायतौबा मचाने वाले न्यूज़ चैनल कभी अपने गिरेबान में झाँककर नहीं देखते कि वे खुद इन कार्यक्रमों को बच्चों तक पहुँचाने में ज्यादा बड़ी भूमिका निभा रहे हैं. यदि कोई कार्यक्रम अश्लीलता फैला रहा है तो समाचार के नाम पर उस कार्यक्रम के फुटेज दिखाना या उन चित्रों को अखबार में छापना भी अश्लीलता फ़ैलाने के दायरे में आएगा. कार्यक्रमों की इस फेहरिस्त में न्यूज़ चैनलों पर दिनभर प्रसारित तंत्र-मन्त्र,भूत,वारदात,सनसनी और अंधविश्वास बढ़ाने वाले कार्यक्रमों को भी शामिल कर लिया जाए तो फिर पूरे के पूरे समाचार चैनल को ही ‘केवल वयस्कों के लिए’ की श्रेणी में शामिल करने की नौबत आ सकती है. अब तो अंग्रेजी अख़बारों की नक़ल करते हुए हिंदी के कई लोकप्रिय समाचार पत्र भी साप्ताहिक परिशिष्ट के नाम पर प्रतिदिन चिकने पन्नों पर नंगी टांगे,चूमा-चाटी भरे दृश्य और अश्लील बातें छापने लगे हैं. जब सेक्स को महिमा मंडित करने वाली सड़क छाप ‘दफा तीन सौ दो’ नुमा पत्रिकाएं खुले आम नहीं बेचीं जा सकती तो फिर लगभग इसकी प्रतिकृति बनते जा रहे हिंदी-अंग्रेजी अखबार क्यों खुलेआम बिकने चाहिए? न्यूज़ चैनल भी ख़बरों को लज्ज़तदार अंदाज़ में पेश करने में पीछे नहीं है और सुबह से ही यह बताना शुरू कर देते हैं कि शाम को या रात के विशेष में क्या ‘लज़ीज़ खबर’ परोसेंगे.ऐसे में घर में “एक टीवी वाले” परिवारों के सामने क्या विकल्प रह जाता है? पहले अभिभावक समाचार देखने के बहाने से बच्चो को मनोरंजक चैनलों पर प्रसारित ‘व्यस्क’ जानकारियों से बचा लेते थे पर अब तो न्यूज़ चैनल ही इसतरह की सामग्री का जरिया बन गए हैं तो फिर कैसे बचा जाए. इसलिए हमें ‘हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखने के कुछ’ की नीति को त्यागकर इस दिशा में न केवल गंभीरता से विचार करना चाहिए बल्कि समाचार माध्यमों को भी ‘केवल वयस्कों के लिए’ की श्रेणी में बांटने के लिए मौजूदा कानून में जल्द से जल्द उपयुक्त फेरबदल करना चाहिए.

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