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स्त्री पर पुरातन काल से कवियों की कूची चलती रही है.हर कवि/कवियत्री ने स्त्री को अपनी-अपनी आँखों से देखा है और बदलते काल और दौर के साथ स्त्रियों को लेकर अभिव्यक्तियाँ बदलती रही हैं.शायद इसलिए हमें विभिन्न समयों में स्त्री को विविध कोणों से समझने का अवसर मिलता है.पिछले दिनों कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति,बंगलुरु के तत्वावधान में ‘समकालीन महिला लेखन’ पर एक संगोष्ठी का आयोजन हुआ.इसमें कई जानी-मानी वक्ताओं ने अपने विषय केन्द्रित संबोधनों में स्त्रियों से जुडी अनेक कविताओं/क्षणिकाओं का उल्लेख किया. मैंने कुछ चुनिन्दा कविताओं को आपके लिए बटोरने का प्रयास किया है.जो बदलती स्त्री से रूबरू कराती हैं. खास बात यह है कि ये महिलाएं “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी “वाली परिपाटी से हटकर सोचती हैं.
प्रज्ञा रावत कहती हैं-
जितना सताओगे उतना उठुगीं
जितना दबाओगे उतना उगुगीं
जितना बाँधोगे उतना बहूंगी
जितना बंद करोगे उतना गाऊँगी
जितना अपमान करोगे उतनी निडर हो जाउंगी
जितना सम्मान करोगे उतनी निखर जाउंगी
वहीँ निर्मला पुतुल पूछती हैं-
क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण ?
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री द्रष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा ?
अगर नहीं
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में….?
उधर सविता सिंह ज़माने पर राय रखती हैं-
यह बहुत चालाक सभ्यता है
यहाँ चिड़ियाँ को दाने डाले जाते हैं
यहाँ बलात्कृत स्त्री
अदालत में पुन: एक बार कपडे उतारती है
इस सभ्यता के पास
स्त्री को कोख में ही मार देने की पूरी गारंटी है…
एक समकालीन कवियत्री का कहना है-
ओढ़ता,बिछाता,और भोगता
शरीर को जीता पुरुष
शरीर के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं होता
उसका प्यार-दुलार,मनुहार
सभी कुछ शरीर की परिधि से
बंधा होता है…
लेकिन औरत, शरीर के बाहर भी
बहुत कुछ होती है…
वहीँ अमिता शर्मा कहती हैं-
सही है तुम्हारा लौटना
सही है मेरा लौटना
और सबसे सही है
हमारा अलग-अलग लौटना…
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