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….मेरी “माँ” को बचा लो प्लीज

jugaali
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मेरी ममतामयी माँ की जान संकट में है. वह तिल -तिलकर मर रही है और मैं ऐसा अभागा बेटा हूँ जो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता. दरअसल मेरी माँ की इस हालत के लिए सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि आप सभी ज़िम्मेदार हैं. आप में से कुछ लोगों ने उसे बीमार बनाने में अहम भूमिका निभाई है तो कुछ ने मेरी तरह चुप रहकर इस दुर्दशा तक लाने में मूक सहयोग दिया है.यही कारण है कि आज मुझे आप सभी से माँ को बचने की अपील करनी पड़ रही है.
मेरी माँ का नाम गंगा है…अरे वही जिसे आप सब गंगा नदी या गंगा मैया के नाम से पुकारते हैं. आप सब भी इस बात को मानेंगे कि मेरी माँ ने कभी किसी का ज़रा सा भी नुकसान नहीं किया. वह तो ममता, त्याग, करुणा, वात्सल्य और स्नेह की प्रतिमूर्ती है. आज क्या सदिओं से मेरी माँ हम सब के पाप धोते आ रही है और अनादिकाल से सम्मान पाने में सर्वोपरि रही है. तभी तो इस स्रष्टि के निर्माता ब्रम्हा उसे अपने कमंडल में लेकर चलते थे और सर्वशक्तिमान भगवान् शंकर ने उसे अपनी जटाओं में स्थान दिया. मेरी माँ के विशाल ह्रदय का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजा सगर के पुत्रों को मुक्ति देने के लिए वह धरती पर उतर आई. गंगोत्री से लेकर समुद्र में समाने तक मेरी माँ इलाहाबाद, हरिद्वार, बनारस सहित तमाम जगहों पर हम सब के पाप धोकर सभी कष्टों से मुक्ति दिलाने का काम ही तो कर रही है. वह न केवल हमारी प्यास बुझा रही है बल्कि हमारा पेट भरने के लिए ज़रूरी अनाज पैदा करने में भी सहभागी बनी हुई है. …और बदले में हम उसे क्या दे रहे हैं – कारखानों की ज़हरीली गंदगी, नालों का सड़ांध से बजबजाता पानी, अधजले शव, चमड़ा उद्योग का प्रदूषण, गटर का पानी, तमाम शहरों का मलमूत्र, पोलीथिन और पता नहीं क्या-क्या ? मेरी माँ इतना अपमान सहकर भी कभी क्रोधित नहीं होती बल्कि इस सब गंदगी को अपने में समेटकर हमें शीतल, मीठा और शुद्ध जल प्रदान करती आ रही है लेकिन बर्दाश्त कि भी हद होती है?अब यदि हम पुण्यसलिला और ममतामयी माँ का अस्तित्व ही ख़त्म करने पर उतारूँ हो गए हैं तो उसे बचने की गुहार तो लगानी ही पड़ेगी.
जिस माँ को धरती तक लाने के लिए भागीरथ को सदिओं तपस्या करनी पड़ी अब उसी माँ को धरती से विदा करने के लिए हम कोई कसर नहीं छोड़ रहे ? याद है मेरी माँ की एक बहन थी जिसे हम सभी ‘सरस्वती ‘के नाम से जानते हैं और माँ के साथ मिलकर वे इलाहाबाद (प्रयाग) में ‘त्रिवेणी’ बनाती थी लेकिन हमारी लापरवाही के कारण माँ को अपनी इस बहन को असमय ही खोना पड़ा और अब प्रयाग में त्रिवेणी के स्थान पर ‘संगम’ ही रह गया है? तो क्या अब मेरी माँ को भी अपनी बहन की तरह असमय ही अपना अस्तित्व खोना पड़ेगा? क्या हम सब ऐसे ही चुपचाप सहते रहेंगे? या मेरी माँ को बचाने के लिए मिल-जुलकर आवाज़ उठायंगे? वैसे हमारी सरकार कई सालों से माँ को बचाने के लिए ढेरों योजनायें बना रही है और अब तक अरबों रूपए खर्च कर चुकी है. आप सभी जानते हैं कि सरकार की योजनायें ज़मीन पर कम और कागजों पर ज्यादा बनती हैं इसलिए इतने साल बाद भी माँ गंगा की बीमारी ठीक नहीं हो सकी है. क्यों न हम सभी मिलकर एक बार प्रयास करें और माँ को स्वस्थ करके ही दम लें. तो अब इंतजार किस बात का है? माँ की बेहतरी की पहल आज से ही क्यों नहीं…?

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